Tuesday, July 29, 2025

एक अधूरी कहानी

अजीत  बाबु एक साधासीधा जीवन व्यतीत करनेवाले आम नागरिक थे।  घर संसार भरापूरा  ही था  पर मन में शांति न थी। बीवी नौकरीशुदा थी , बच्चे नामी प्राइवेट स्कूल में पढ़ते थे। आमदनी अच्छी थी इसलिए खर्चों से परहेज़ न था।  पर जैसा कि मैंने पहले कहा अजीत बाबु दिली तौर  पे खुश न थे। 

उनके लिए शादी एक समझौता ही था । ऐसा समझौता जो उनके माता पिता ने उनको करने पर मजबूर किया था। अगर होती उनकी शादी कुसुम से तो जीवन के मायने ही बदल जाते। फिर तो रोज़ शामो सहर सतरंगी रंगों से रंग जाते। अब क्या है?  सुबह ऑफिस जाना शाम को ऑफिस से घर आना, गृहस्थी के नाना प्रकार के खर्चों का ब्योरा रखना, खर्चे कम क्यों नहीं हो पा रहे हैं उसपे सुशीला से बहस करना और फिर खाना खाकर सो जाना। हां, उनकी पत्नी का नाम सुशीला ही थी । पढ़ी लिखी, सुघड़, समझदार और सहनशील । मां ने यही सारे गुणों को देखते हुए अपने "नासमझ" बेटे के लिए उसे चुना था। चुनाव सांसारिक अनुभवों पर आधारित था प्यार मोहब्बत के दावों पर नहीं। 

सुशीला ने वैवाहिक जीवन के प्रारंभिक कुछ महीनों में ही भांप लिया था कि उनके पति का मन जीतना उसके लिए संभव नहीं है। फिर भी गृहस्थी के सारे कर्तव्यों को बिना शिकायत ही उसने बड़ी सूझबूझ से निभाने का बीड़ा उठा लिया था। बच्चों को पढ़ाना, घर संभालना, खाना बनाना और एक समय अजीत बाबू के नौकरी छूट जाने पर घर के पास एक स्कूल में वरिष्ठ शिक्षिका का पदभार संभाल लेना उसके निजी निर्णोयों में से कई थे। अपने पति से पूछना आवश्यक नहीं , ऐसा न था, पर सुशीला जानती थी अजीत के शख्सियत में ठोस निर्णय लेने की क्षमता ना के बराबर ही था। इसलिए सुशीला, जो भी घर और बच्चों के खुशी के लिए ठीक समझती, अपने आप ही सब कर लेती। अजीत बाबू को कभी कभी महीनों बाद पता चलता कि घर के रुटीन में कोई परिवर्तन हुआ है। वे सोचते कुसुम होती तो मुझको खुद ही बताती पर ये तो सुशीला है। ये क्यों मुझे बताएंगी? सुशीला तो इस घर की एकछत्र मालकिन है। अजीत बाबू तो सिर्फ पैसे कमाने की मशीन बन कर रह गए है। इत्यादि...

मुद्दे की बात यह थी कि सुशीला और अजीत संसार नामक गाड़ी के दो पहिए जरूर थे पर गाड़ी फिर भी ज़िंदगी के दो समांतराल ट्रैकों पर चल रही थी। गाड़ी उलट नहीं रही थी इसका श्रेय अजीत बाबू अपने ए टी एम कार्ड को देते थे । सुशीला की इसमें कोई  बौद्धिक, वित्तीय या भावनात्मक सहयोग उनको दिखाई नहीं पड़ता था। किसी भी सांसारिक समस्या का समाधान या निष्पादन "अगर कुसुम होती तो ...." से शुरू होकर वही खत्म हो जाता था। 

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अजीत और कुसुम किसी ज़माने में पड़ोसी हुआ करते थे। धीरे धीरे उनके विशुद्ध दोस्ती में प्यार का समायोजन हुआ। कुसुम खूबसूरत होने के साथ साथ बातें भी बहुत मिठी मिठी करती थीं। उसे अजीत से हमदर्दी था। उसकी माली हालत कुसुम के पारिवारिक समृद्धियों से कम था। अजीत के पिता नौकरी पेशा थे और कुसुम के पिता सुलझे हुए व्यापारी। 

कुसुम ने अजीत को, हर हालात में कंधे से कंधा मिलाकर चलने का, आश्वासन दिया था। अजीत दृढ़ निश्चित था कि कुसुम ऐसा ही करेगी। परन्तु प्यार में बह जाने के बावजूद अजीत अपने पिता के समक्ष कभी यह कह न पाया कि कुसुम से वह विवाह करना चाहता है। कुसुम ने भी इस बात पर कभी जोर नहीं दिया। दूर क्षितिज पर विवाह का तारा टिमटिमाता रहा और वे दोनों उस तारे को देख देख फूले न समाते। पर किसी ने भी इस योजना को कार्यान्वित करने की पहल नहीं की।

और एकदिन कुसुम की शादी हो गई। अजीत के माताश्री को उसकी मानसिक स्थिति तब ज्ञात हुई जब वह सी ए की अंतिम परीक्षा पास न कर सका। 

दो साल बाद अजीत के सी ए बनते ही उन्होंने सुशीला का चयन कर सामाजिक स्वीकृति के साथ घर ले आए।

प्रेम का झिलमिल तारा बुझ सा गया। पर क्षितिज पर उसकी मृत रोशनी की एक रेखा , पता नहीं कैसे, समय के उतार चढ़ाव को अमान्य कर, जीवित रही। वो रेखा घर जलाने के काबिल न थी। पर वह अजीत के मन को प्रतारित करता रहा।

और सुशीला, सब कुछ जानते हुए भी कभी सवाल जवाब में न उलझ, अपने बच्चों के भाग्यों को संवारने में जुटी रही।

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फिर एकदीन अकस्मात , जैसे कुसुम अजीत बाबु के जीवन से निष्कासित हुई थी वैसे ही दोबारा आ धमकी। धमाका ही था मानिए। धमाके कहके नहीं फूटते। अचानक विस्फोट तहस नहस कर अपनी बंजर निशानियां छोड़ जाती है। पुनर्वार उसकी आने की कल्पना कर मनुष्य सहम जाता है पर उसे बुलाने की तजवीज नहीं करता। 

अजीत बाबु ऑफिस के किसी कलिग के शादी पे एक शाम के लिए शहर के बाहर जाने पर विवश हो गए। वैसे तो उन्हें घर से ऑफिस और ऑफिस से घर के अलावा कहीं और जाने का मन नहीं करता था पर कलिग के साथ अच्छे संबंध थे तो मना न कर पाए। ढाई सो किमी की दूरी अधिक तो नहीं पर सुशीला के हाथ की चाय न जाने क्यों बहुत याद आने लगी। 

बहरहाल शादी के मंडप पर पहुंच अपने बाकी कलिगों को ढूंढते ढूंढते नजर एक जगह जाकर गढ़ गई। एक अकेली औरत भीड़ से थोड़ी दूर एक कुर्सी पर बैठी किन्हीं सोचों में गुम सी लग रहीं थीं। उसकी शक्ल काफी जानी पहचानी सी  थी। कीमती सारी, गहनों और मेक अप से लदी हुई। वैसे तो मक अप की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि उसकी व्यक्तित्व में एक अलग ही बात थी। गंभीरता के साथ साथ एक अजब उदासी। जैसे की मुसाफिर रास्ता भूल कहीं और भटक गया हो। पता तो मालूम था पर याद न आ रहा हो। एक घबड़ाहट, एक बेचैनी, एक गलती का अहसास जैसे कचोट रहा हो। 

अजीत बाबु को चंद सेकंड लगे पहचानने में। पहले शक सा हुआ  ये वही तो नहीं? फिर एक टक देखने के बाद यकीन हुआ हां यह वही तो है। कुसुम... हमारी कुसुम...मेरी कुसुम। अजीत बाबु भूल गए कि जिस कुसुम को वे जानते थे , जिस कुसुम के अनुराग में वे मुग्ध हो जग परिवार को त्यागने का एक समय निर्णय ले चुके थे उस कुसुम और इस अधेड़ उम्र की महिला में वर्षों का फासला था। 

अजीत बाबु आगे बढ़े। कुर्सी तक पहुंच कर थोड़ा आगे झुक कर नम्रता से संबोधित किया, "कुसुम! तुम कुसुम ही हो न? मुझे पहचाना?" वह महिला चौंक कर अजीत बाबु की तरफ देख कर बोली, "आप मुझे जानते हैं? मैंने आपको पहचाना नहीं" । अजीत बाबु झेंप गए। क्या एक ही नाम और शक्ल के दो शख्स हो सकते हैं? क्या उन्होंने हड़बड़ी में कोई गलती कर डाली? क्या ये वो कुसुम नहीं? इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते हुए अजीत बाबु को ये ख्याल ही नहीं आया कि इतने सालों बाद उनकी प्राक्तन प्रेमिका उसे भुला सकती है या उसे न पहचानने का ढोंग कर सकती है।

अजीत बाबु कुसुम को याद दिलाने ही वाले थे कि एक हंसमुख व्यक्ति उनकी ओर बढ़े और पूछा, " क्या आप मेरी पत्नी से बात कर रहे हैं? क्या आप उनके पूर्व परिचित हैं? अजीत बाबु फिर झेंप गए। उन्होंने कैसे भुला दिया कि कुसुम शादी शुदा है। उनकी इस तरह एक शादी शुदा स्त्री से आगे बढ़ कर बात नहीं करनी चाहिए थी। पर उसके तुरंत बाद ही उनको ख्याल आया कि वे तो कुसुम को शादी से पहले से ही जानते थे। तो इसमें क्या ही हर्ज है कि उन्होंने किसी पुराने मित्र से वार्तालाप करने की पहल की । हां, प्रेमिका से पहले कुसुम उनकी दोस्त ही तो थी। सबसे अच्छी दोस्त।

अजीत बाबु ने सर हिलाकर हामी भरी। वह अपरिचित, हंसमुख व्यक्ति थोड़े झिझके । फिर बड़ी क्षमापूर्ण स्वर में बोले, " बुरा मत मानिएगा। मेरी पत्नी को अल्जाइमर है यानी भूलने की बीमारी। उन्हें आप शायद याद न हो"।

अजीत बाबु सकपकाकर बोले, "अल्जाइमर?" वह तो वृद्धावस्था के लक्षण है"। 

कुसुम के पति ने अजीत बाबु की बात को काटते हुए कहा, " नहीं ये एक गलतफहमी है। अल्जाइमर किसी भी उम्र में हो सकती है। कुसुम को तो शादी के कुछ साल बाद ही हो गया था। पर आप कुसुम को कैसे जानते हैं?"

अजीत बाबु उत्तर न दे सके। क्या वह अपराधबोध था या अचानक एक बड़ा झटका लगने का ट्रॉमा? अजीत बाबु को समझ न आया। उनके आंखों के सामने उनके कॉलेज के दिन, कुसुम से परिचय, उससे दोस्ती फिर प्रथम प्रणय निवेदन, पहले पहले छुप छुप के मिलना फिर साहस संचित होने के बाद किसी की परवाह न करते हुए एक दूसरे से घुलना सब आंखों के सामने सिनेमा के दृश्यों की तरह एक के बाद एक तैरने लगा। 

अजीत बाबु ज्यों त्यों शादी के मंडप से बिना कुछ खाए, बिना अपने कलिगों से मिले, बिना नव दंपति को मुबारकबाद दिए  किसी तरह निकल आए। रात हो चुकी थी। रास्ते सुनसान हो गए थे। चलते चलते अजीत बाबु कहां निकल आए थे उन्हें भी नहीं पता था। केवल मन के अंगने में एक मुरझाई हुई फूलों की क्यारी सुगंधहीन, रंगहीन दिखाई पड़ रही थी। 

और तभी सुशीला की मुखमंडल अजीत बाबु के आंखों के आगे चमकने लगी। भूख का एहसास होते ही सुशीला के हाथ की बनाई हुई रोटी , सब्जी और अचार अनायास ही मुंह में पानी का संचार करने लगी। शादी पे जाना है सुनके सुशीला ने अपने हाथों से अजीत बाबु के पहने हुए कपड़े प्रेस कर दिए थे। उसकी हाथों के स्पर्श अजीत बाबु मानो कपास के बुनाई में अनुभव करने लगे। इतने वर्षों बाद अजीत बाबु को अनुभव हुआ कि सुशीला ने बड़ी ही निपुणता से उनकी गृहस्थी संभाली है, बच्चों की लिखाई पढ़ाई में मदद, अनुशासन और देखभाल की है , सांस ससुर की सेवा में कोई कमी नहीं रखी है और अजीत बाबु के कंधे से कंधा मिलाकर बुरे दिनों में नौकरी कर संसार धर्म निभाया है। 

आज उस जनमानवहिन सड़क पर खड़े खड़े अजीत बाबु की आँखें सुशीला और उसकी दायित्वबोध , सहनशीलता और बुद्धिमत्ता की प्रशंसा से भर आई। कभी कभी हीरा हाथ के पास होते हुए भी उसका मूल्यांकन करने में इंसान चूक जाता है। अजीत बाबु खुद को कोस ही रहे थे कि पीछे से क्रिंग क्रिंग की आवाज आई। अजीत बाबु ने मुड़ कर देखा तो एक ऑटो दृश्यमान हुआ। हाथ बढ़ाकर ऑटो को रोकते हुए जोर से वे बोले, "स्टेशन"।

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अजीत बाबु की अधूरी प्रेम कहानी यही समाप्त होती है परंतु पाठक पाठिकाओं के लिए कुछ मूल प्रश्न भी छोड़ जाती है। क्या इस घटना के पश्चात अजीत बाबु अपनी रोजमर्रा के जीवन में संतुष्टि ढूंढ पाएंगे ? क्या उनको कुसुम की याद अब भी सताएगी? और जब जब कुसुम याद आएगी क्या वे सुशीला के साथ खर्चों का ब्यौरों को लेकर तर्क वितर्क में लिप्त होंगे ?

मनुष्य एक अद्भुत जीव है। उसे जो जीवन में मिलता है उसे वह अपना अधिकार समझ झटपट दबोच लेता है और जो नहीं मिलता है उसकी प्रतिक्षा में उम्र भर अफसोस करता रहता है। क्या अजीत बाबु इन वास्तविकताओं और इंसानी कमजोरियों के ऊपर उठ पाएंगे? आपको क्या लगता है?





2 comments:

  1. I feel the same as felt by the authoress. I agree with the conclusion. Good story.

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  2. Thank you very much Mathur Sahab

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